एक सौ तेईस साल में बदला दशहरा मेला का स्वरुप

पंचमी पर रावण का लाल मुंह करने की थी परम्परा 
रियासतकाल में तीन दिन का भरता था कोटा का दशहरा मेला, अब 27 का हुआ |

कोटा के मध्यकालीन इतिहास में हाड़ा शासकों द्वारा आरंभ किया गया दशहरा मेला अब 123 साल का हो गया हैं। शताब्दी पार मेले को यादों के झरोखे से देखे तो कई उतार चढ़ाव दिखेंगे। कई रौचक बाते भी सामने आएगी जिन्हें सुनने मात्र से ही मन का मयूर नाच उठेगा।

रियासतकाल से 1963 तक यहां रावण की प्रतिमा गोल आकार में मिट्टी की बनी होती थी। रावण कुनबे की मंदोदरी, कुंभकरण, मेघनाद, खरदूशण के गधे का सिर बनता था, कुल छह सात प्रतिमाएं बनती थी। रावण का सिर 80 मण (एक मण में 40 किलो वजन) व बाकी प्रतिमाओं के सिर का वजन 20 से 25 मण होता था।

इतिहासविद फिरोज अहमद के अनुसार रियासतकाल में रावण वध की परपंरा थी। राजपरिवार के महाराव द्वारा तीर से रावण की नाभी भेदते ही कलश फूटता था जिसमें से लाल रंग निकलता था। इसके बाद लोग रावण पर टूट पड़ते और लकड़ियां लूटते। रावण को मशीन या हाथी से गिराते थे। वध के बाद लोग रावण लूटते थे। रावण की नाक इतनी बड़ी होती थी कि एक बकरा या कुत्ता आसानी से निकल जाए। पंचमी के दिन रावण का मुंह लाल करने की परंपरा थी। इस दिन अन्य प्रतिमाओं के भी सिर लग जाते थे।

मलवा व यूपी से आते भी पषु व्यापारी
रियासतकाल में पहले मेला नगर वासियों व हाडोती की ग्रामीण जनता का मेला हुआ करता था। हजारों की तादाद में लोग आते थे। शुरूआत पंचमी के दिन से हो जाती थी। पशुु मेला भव्यता के साथ लगता था। मालवा व यूपी से व्यापारी पशु बेचने खरीदने आते थे। राजपरिवार की तरफ से चूंगी में विषेश छूट भी दी जाती थी। आरंभ में मेला तीन दिवसीय भरता था बाद में सात दिवसीय हुआ और अब  27 दिन का भरने लगा हैं।
1925 तक दशहरा मैदान में घोसियों के बाडे़ थे। राजदरबार ने बाद में मुआवजा देकर उन्हें खाली करवाया और तंबू में दुकाने लगने लगी। 1958-59 में नगर परिशद के प्रशासक शीतल प्रसाद माथुर की अध्यक्षता में मेला हुआ, तब यहां पक्की दुकानों का निर्माण करवाया गया। नगर परिषद के तत्कालीन चैयरमेन राज हिम्मतसेनजी कुन्हाड़ी के 1960-61 में कार्यकाल में फिल्मी कलाकरों को बुलाने व रामलीला का मंचन भी आरंभ हुआ। मथुरा के कलाकार आते थे।

पहले तीन दिन का भरता था दशहरा मेला
1892 में ब्रिटिश सरकार से कोटा रियासत के महाराव उम्मेदसिंह द्वितीय को शासन के अधिकार मिले और 1893 से मेला लगने लगा। रियासतकालीन परंपरा महाराव भीमसिंह द्वितीय के शासन का 1941 से 1947 तक रही। बाद में नगर परिषद कोटा और अब नगर निगम इस आयोजन को अपने तरीके से करवा रही है। पंचमी के दिन ढाडदेव माताजी का विशेष पूजन होता था। एक भेसे व पांच बकरे की बली देते थे। राजपूत सरदार एक हाथ से भेंसे का तलवार से वध करते थे। उम्मेदसिंहजी ने करीब 1925 के बाद पशुुबली की इस परपंरा को बंद करवा दिया। सप्तमी के दिन करणी माता की सवारी का आयोजन होता था। दरबार पहले नांता गांव जाते और कालभैरव मंदिर में भैंसे का बलिदान होता फिर करणी माता मंदिर में दो बकरे का बलिदान होता। बाद में इसे प्रथा को भी बंद करा दिया।

मेला राष्ट्रीय स्तर पर पहचान कायम करे
नगर निगम आयुक्त शिव प्रसाद एम नकाते बताते है कि 123 साल का हो चुका कोटा का दशहरा मेला राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान कायम करे और यहां देश-विदेश से पर्यटक आए इसके लिए हर संभव प्रयास किए जा रहे है। मेला आयोजन समिति के अध्यक्ष राममोहन मित्रा बाबला बताते है कि रावण अब आधुनिक तरीके से बनने लगा है। इस दफा रावण दहन के दौरान आंखे टिमटिमाएंगा, तलवार घुमाएंगा और अट्टहास करेगा। मेघनाद व कुंभकरण के पुतले भी तलवार घुमाने का करतब दिखाएंगे। जोरदार आतिशबाजी भी नागरिकों को रावण दहन व मेला समापन पर देखने को मिलेगी। मेला अवधि में विजयश्री रंगमंच पर होने वाले कार्यक्रमों व किसान रंगमंच के कार्यक्रमों में हाड़ौती की सांस्कृतिक झलक देखने को मिलेगी। पर्यटन विभाग के सहयोग से भी रोचक प्रस्तुति होगी। सहायक लेखाधिकारी व मेला समिति के सहसचिव दिनेश जैन बताते है कि हमारा पूरजोर प्रयास है कि कोटा का दशहरा मेला राष्ट्रीय स्तर पर पहचान कायम करे और यहां पर्यटन व सैलानियों को बढ़ावा मिले। प्रचार-प्रसार भी हाइटैक तकनीक के जरिए किया जा रहा हैं। इसके लिए www.kotadussehramela.com  वेबसाइट भी डवलप की है। मेले की पल पल की जानकारी ऑनलाइन उपलब्ध करवाई जा रही है।


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